Saturday, 7 October 2017

Untitled (cannot think of one yet)

कुछ रातों के काले साये में मैं अक्सर सोचा करता हूँ,
कि तुझे याद करूँ तो कैसे करूँ।
आधे बिछरे पन्नो के किस स्याह से तुझे याद करूँ,मैं अक्सर सोचा करता हूँ।
टटोल के कुछ किताबों को, कुछ अल्फ़ाज़ ढूंढता रहता हूँ,
शायद बयां कर जाऊं जो दिल में है, मैं तुझे याद करूँ तो कैसे करूँ, अक्सर कालि रातों को मैं ऐसे ही जलाता हूँ।
देख देख पुराने शायरों को, कभी कलम भी उठा लेता हूँ,
क्या पता क्या लिखूं, अक्सर यही सोचता हूँ।
खिड़की के बाहर अँधेरे को मैं यूँ ही तकता रहता हूँ,
वक़्त भी मेरे साथ अक्सर यही सोचता है, तुझे याद करूँ तो कैसे करूँ।
फिर थक हार कर, जब पन्ने समेट लेता हूँ और कलम भी जब स्याह रिसना बंध कर देता है,
जब रात भी अब कल का वादा निभाती है,
चंद लम्हे के लिए ही सही बादस्तूर कुछ याद सा आ जाता है,
तेरे बारे में, जो सिर्फ मेरा है।
अधूरा ही सही, ऐसे ही,
कुछ रातों के काले साये में मैं अक्सर तुझे याद करता हूँ।

ऋषिराज.




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